मंत्रिमंडल के मेरे साथी डॉ. जितेन्द्र सिंह, पी.के मिश्रा जी, राजीव गौबा जी, श्री वी. श्रीनीवासन जी और यहां उपस्थित सिविल सेवा के सभी सदस्य और वर्चुली देश भर से जुड़े सभी साथियों, देवियों और सज्जनों, सिविल सेवा दिवस पर आप सभी कर्मयोगियों को बहुत बहुत शुभकामनाएं। आज जिन साथियों को ये अवार्ड मिले हैं। उनको उनकी पूरी टीम को और उस राज्य को भी मेरी तरफ से बहुत–बहुत बधाई। लेकिन मेरी ये आदत थोड़ी ठीक नहीं है। इसलिए मुफ्त में बधाई देता नहीं हूं में। कुछ चीजों को इसके साथ हम जोड़ सकते हैं क्या? ये मेरे मन में ऐसे ही आए हुए विचार हैं लेकिन आप उसको अपने administrative system की तराजु पर तोलना ऐसे ही मत कर देना। जैसे हम यह कर सकते हैं कि जहां भी हमारे सिविल सर्विस से जुड़े जितने भी ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट्स हैं। चाहे विदेश मंत्रालय की हो, पुलिस विभाग की हो, या मसूरी हो या रेवेन्यू हो, कोई भी जहां भी है आपके। क्योंकि काफी बिखरा हुआ सारा ये कारोबार चल रहा है। हर सप्ताह एक डेढ घंटा वर्चुली ये जो अवार्ड वीनर हैं। वे अपने ही राज्य से इस पूरी कल्पना क्या थी, कैसे शुरू किया, कौन सी कठिनाई आई, पूरा प्रेजेंटेशन दे वर्चुअली इन सब ट्रेनीज़ को। Questions Answers हों और हर सप्ताह ऐसे दो award winners के साथ अगर विशेष चर्चा हो तो मैं समझता हूं कि जो नई पीढ़ी आ रही है। उनको एक प्रैक्टिकल अनुभव बात चीतों को लाभ मिलेगा और इसके कारण जिन लोगों ने इस काम को achieve किया है। उनको भी इस काम के प्रति जुड़े रहने का एक आनंद आएगा। धीरे–धीरे उसमें innovation होते रहेंगे, Addition होता रहेगा। दूसरा एक काम, ये जो आज 16 साथियों को यहा अवार्ड मिला है। हम सभी देश के साथियों से वैदिक जो जिले हैं उन सबकों निमंत्रित करें। इन 16 में से आप किसी एक स्कीम को सेलेक्ट किजिये। किसी एक व्यक्ति को इंजार्च बनाइये और आप तीन महीने, छह महीने के प्रोग्राम के अंतर्गत इसको कैसे लागू करेंगे? लागू करने कि दिशा में क्या करेंगे? और मान लीजिए पूरे देश में से 20 डिस्ट्रिक्ट ऐसे निकले जिन्होने एक स्कीम को सेलेक्ट किया है। तो कभी उन 20 डिस्ट्रिक्ट का वर्चुअल समिट करके जिस व्यक्ति का, जिस टीम का ये काम है उनके साथ उनकी बातचीत हो और राज्यों में से कौन टॉप बनता है उसमें, Implementation में। इसी को institutionalize करते हुए उस जिले का इसको स्वभाव में परिवर्तित करने के लिए क्या कर सकते हैं? और पूरे देश में से वन स्कीम वन डिस्ट्रिक्ट हम कम्पटीशन को उपर कर ला सकते हैं क्या? और जब एक साल के बाद मिलें तो उसका भी जिक्र करें, उसको अवार्ड देने की जरूरत नहीं है अभी। लेकिन जिक्र हो कि भई ये स्कीम जो 2022 में जिनको सम्मान किया गया था। वो चीज यहां तक पहुंच गई। अगर मैं समझता हूं कि हम लोग इसको institutionalize करने के लिए institutionalize करें। क्योंकि मेने देखा है कि सरकार का स्वभाव, जब तक वो किसे कागज के चौखट में चीज नहीं आती है। वो चीज आगे बढ़ नहीं पाती है। इसलिए किसी चीज को institutionalize करना है तो उसके लिए एक institution बनानी पड़ती है। तो जरूरत पड़े तो ये भी एक व्यवस्था खड़ी कर दी जाए। तो हो सकता है कि otherwise क्या होगा कि भई चलिए कुछ तो ऐसे लोग होते हैं। कि जो मन में तय करते हैं कि मुझे ये achieve करना है। तो 365 दिन दिमाग उसी में खपाते हैं। सभी को उसी में जोड़ देते हैं। और एक आद achieve कर लेते हैं और अवार्ड भी प्राप्त कर लेते हैं। लेकिन बाकी चीजों को देखें तो कई पीछे रह जाते हैं। तो ऐसी कमियां भी महसूस न हो। एक स्वस्थ स्पर्धा का वातावरण बने। उस दिशा में हम कुछ सोचें तो शायद जो हम चाहते हैं कि एक बदलाव आए वो बदलाव शायद हम ला सकते हैं।
.आप जैसे साथियों से इस प्रकार से संवाद मुझे लगता है शायद 20-22 साल से में लगातार इस काम को कर रहा हूं। और पहले मुख्यमंत्री के रूप में करता था एक छोटे दायरे में करता था। प्रधानमंत्री बनने के बाद थोड़ा बड़े दायरे में हुआ और बड़े-बड़े लोगों के साथ हुआ। और उसके कारण एक प्रकार से हमे अन्य – अन्य कुछ आपसे मैं सिखता हूं कुछ मेरी बातें आप तक पहुंचा पाता हूं। तो एक प्रकार से संवाद ना एक अच्छा सा हमारा ये माध्यम बना है, परंपरा बनी है और मुझे खुशी है कि मुझे बीच में कोरोना के कालखंड मे थोड़ा कठिनाई रही otherwise मेरा प्रयास रहा है कि में आप सब से मिलता रहूं। आपसे बहुत कुछ जानता रहूं। समझने का प्रयास करूं और अगर संभव हो तो उसको अगर मेरे व्यक्तिगत जीवन में उतारना है तो उसको उतारूं और कहीं व्यवस्था में लाना है तो व्यवस्था में लाने का प्रयास करूं। लेकिन यही एक प्रक्रिया है जो हमे आगे बढ़ाती है। हर किसी से सीखने का अवसर होता ही होता है। हर किसी के पास किसी न किसी को कुछ देने का सामर्थ्य होता ही है और अगर हम उस भाव को विकसित करते हैं। तो स्वाभाविक रूप से उसको स्वीकार करने का मन भी बन जाता है।
साथियों,
इस बार का आयोजन वो रूटीन प्रक्रिया नहीं है। मैं इसे कुछ विशेष समझता हूं। विशेष इसलिए समझता हूं कि आजादी के अमृत महोत्सव में जब देश आजादी के 75 साल मना रहा है तब हम इस समारोह को कर रहे हैं। क्या हम एक काम कर सकते हैं क्या? और मैं मानता हूं कि इसको हमने क्योंकि कुछ चीजें होती हैं जो सहज रूप से नया उमंग उत्साह भर देती है। मान लीजिए आप जिस डिस्ट्रिक्ट में काम करते हैं और पिछले 75 साल में उस डिस्ट्रिक्ट के मुखिया के रूप में जिन्होंने काम किया है। उसमें से कुछ जीवित होंगे कुछ नहीं होंगे। इस आजादी के अमृत महोत्सव के निमित एक बार उस डिस्ट्रिक्ट में उन सबको बुलाइये। उनको भी अच्छा लगेगा 30-40 साल के बाद वो उस जगह पर वापस गए हैं, आपको भी अच्छा लगेगा उनके पुराने – पुराने लोगों को याद करेंगे। यानि एक प्रकार से उस जिला इकाई में किसी ने 30 साल पहले काम किया होगा, किसी ने 40 साल पहले काम किया होगा, जो बाहर से वहां आएगा वो भी एक नई उर्जा लेके जाएगा और जो वहां है उसको में अच्छा–अच्छा ये देश के कैबिनेट सेक्रेट्री, वो कभी यहां थे। उसके लिए बड़े आनंद की बात हो जाएगी और मुझे पक्का विश्वास है कि हमने इस दिशा में जरूर प्रयास करना चाहिए। मेरा एक मुझे विचार इसलिए आया शायद मैं नाम तो भूल गया गोडबोले जी या देशमुख। I forgot the name. हमारे कैबिनेट सेक्रेटरी रहे थे तो एक बार और बाद में वो अपना जीवन रक्तपित्त के लोगों के सेवा में उन्होंने रिटायर होने के बाद खपा दिया। तो गुजरात में उनका वो रक्तपीत संबंधित कार्यक्रम के लिए आए थे। मुझे मिलना हुआ तो तब तो संयुक्त मुंबई राज्य था। महाराष्ट्र और गुजरात अलग नहीं था। तो उन्होंने मुझे बताया मैं बनासकांठा का था मैं डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर था। और बाद में बोले महाराष्ट्र बना तो मैं महाराष्ट्र कैडर चला गया और फिर मैं भारत सरकार में चला गया। लेकिन इतना सा सुनना मेरे लिए मुझे एक दम से उनके साथ जोड़ दिया। तो मैने उनको पूछा वो समय बनासकांठा कैडर में कैसा होता था, कैसे काम करते थे। यानी चीजें छोटी होती हैं। लेकिन उसका सामर्थ्य बहुत बड़ा होता है और एक monotonous जिंदगी में बदलाव लाने के लिए व्यवस्था में जान भरना बहुत जरूरी होता है। व्यवस्थाएं जीवंत होनी चाहिए। व्यवस्थाएं dynamic होनी चाहिए और जब पुराने लोगों से मिलते हैं तो उनके जमाने में व्यवस्था किस कारण से विकसित हुई थी। उसकी background information हमे उस परंपरा को चलाना नहीं चलाना बदलाव लाना नहीं लाना बहुत चीजें सिखाकर के जाते हैं। मैं चाहूंगा कि आजादी के इस अमृत काल में आप अपने डिस्ट्रिक्ट में जो पहले डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर के रूप में काम करके गये हैं। एक बार अगर हो सके उनका मिलने का कार्यक्रम बनाइये। आपके उस पूरी डिस्ट्रिक्ट के लिए वो एक अनुभव नया आएगा। उसी प्रकार से राज्यों में जो chief secretary के नाते काम करके गये हैं। एक बार राज्य के मुख्यमंत्री उन सबको बुला लें। देश के प्रधानमंत्री जितने भी cabinet secretary रहे हैं कभी उनको बुला लें। हो सकता है एक क्योंकि आजादी का अमृत काल 75 साल की इस यात्रा में भारत को आगे बढ़ाने में सरदार पटेल का ये जो तोहफा है हमें सिविल सर्विसेस का, इसके जो ध्वजवाहक लोग रहे हैं। जो आज उसमें से जितने भी जीवित हैं। उन्होंने कुछ न कुछ तो योगदान दिया ही है इस देश को आज तक पहुंचाने में। उन सबको स्मरण करना, उनका मान सम्मान करना ये भी आजादी के अमृतकाल में इस पूरी सिविल सर्विसेस को ऑनर करने वाला विषय बन जाएगा। मैं चाहुंगा इस 75 साल की यात्राओं को हम समर्पित करें। उनका गौरवगान करें और एक नई चेतना लेकर के हम आगे बढ़ें और इस दिशा में हम प्रयत्न कर सकते हैं।
साथियों,
हमारा जो अमृत काल है, ये अमृतकाल सिर्फ बीते सात दशक का जय जयकार करने का ही है ऐसा नहीं है। मैं समझता हूं हम 70 से 75 गए होंगे, रूटीन में गए होंगे। 60 से 70 गए होंगे, 70 से 75 गए होंगे, रूटीन में गए होंगे। लेकिन 75 से 2047 India at 100 ये रूटीन नहीं हो सकता है। ये आज का अमृत महोत्सव हमारा वो एक watershed होना चाहिए। जिसमें अब 25 साल को एक इकाई के रूप में ही हमने देखना चाहिए। टुकड़ों में नहीं देखना चाहिए और हमने India at 100, अभी से उसका वीजन देखकर के, और वीजन देश में क्या वो नहीं, डिस्ट्रिक्ट में मेरा डिस्ट्रिक्ट 25 साल में कहां पहुंचेगा। मैं इस डिस्ट्रिक्ट को 25 साल बाद कैसा देखता हूं और में कागज में लिखित रूप से हो सके तो आपके डिस्ट्रिक्ट की दफ्तर में लगाइये। हमें यहां–यहां तक पहुंचना है। आप देखिए एक नई प्रेरणा, नया उत्साह नया उमंग उसके साथ जुड़ जाएगा। और multiplier activity के साथ हमने डिस्ट्रिक्ट को ऊपर उठाना है और अब केंद्र हमारा है। भारत कहां पहुंचेगा, राज्य कहां पहुंचेगा, हमने 75 साल इन सारे लक्ष्यों को लेकर के चले हैं। India at 100, डिस्ट्रिक्ट हम 25 साल में कहां ले जाएंगे। हिन्दुस्तान में मेरा डिस्ट्रिक्ट नंबर एक बनाकर के रहुंगा। कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं होगा कि मेरा डिस्ट्रिक्ट पिछे हो। कितनी ही प्राकृतिक मुश्किलों वाला जिला होगा तो भी मैं करके रहूंगा। ये inspiration ये सपना, ये संकल्प और उसके लिए सिद्दिक प्राप्त करने के लिए निरंतर पुरुषार्थ परिश्रम इसके संभावनाओं को लेकर के हम चलें तो ये सिविल सर्विस के हमारे लिए एक नई प्रेरणा का कारण बन जाएगा।
साथियों,
हर भारतवासी आज आपको जिस आशा आकांक्षा से देख रहा है उसे पुरा करने में आपके प्रयासों में कोई कमी न हो उसके लिए आज आपको भी सरदार वल्लभभाई पटेल ने हम सबको जो प्रेरणा दी। जो संदेश दिया और जिस संकल्प के लिए हमे प्रेरित किया। हमें उस संकल्प को फिर एक बार दोहराना है। हमें फिर से खुद को उसके लिए वचनद्ध करना है और यहीं से कदम को आगे बढ़ाते हुए निकलना है। हम एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में हैं और हमारे सामने तीन लक्ष्य साफ–साफ होने चाहिए और मैं मानता हूं कि उसमें कोई compromise नहीं होना चाहिए और तीन ही हो ऐसा नहीं है बाकी और भी चीजें हो सकती हैं। लेकिन में सिर्फ तीन को आज समावित करना चाहता हूं। पहला लक्ष्य है कि आखिरकार हम ये देश में जो भी व्यवस्थाएं चलाते हैं जो भी बजट खर्च करते हैं। जो भी पद प्रतिष्ठा हम प्राप्त करते हैं किसके लिए है जी? ये सब क्यों है? ये मेहनत किस बात के लिए है? ये तामजाम किस बात के लिए है? और इसलिए मैं कहना चाहूंगा कि हमारा पहला लक्ष्य है कि देश में सामान्य से सामान्य मानवीय की जीवन में बदलाव आए। उसके जीवन मे सुगमता आए और उसे इसका एहसास भी हो। देश के सामान्य नागरिकों को अपनी सामान्य जिंदगी के लिए सरकार से जो नाता आता है उसे जद्दोजहद न करनी पड़े। सहज रूप से सब उपलब्ध हो। ये लक्ष्य सदा सर्वदा हमारे सामने होना चाहिए। हमारे प्रयास इसी दिशा में होने चाहिए कि देश के सामान्य मानवी के सपनों को संकल्प में बदलने के लिए, उसका सपना संकल्प कैसे बने, उस सपने को संकल्प तक यात्रा पूरी कराने में एक positive atmosphere एक स्वाभाविक वातावरण पैदा करना ये व्यवस्था का जिम्मा है। जिसका नेतृत्व हम सबके पास है। हमें ये भी देखना चाहिए कि देश के नागरिकों को अपने संकल्पों के सिद्धी की यात्रा में सपना संकल्प बन जाए बात वहां अटक नही सकती है। जब तक की संकल्प सिद्ध न हो और इसलिए सपना संकल्प बनें, संकल्प सिद्धी बने इस पूरी यात्रा वहां जहां भी जरूरत हो हम एक साथी की तरह एक colleague की तरह उसके साथ हो उसकी hand holding करें। Ease of living को बढ़ाने के लिए हम जो कुछ भी कर पाएं, वो हमें जरूर करना चाहिए। अगर मैं दूसरे लक्ष्य की बात करूं तो आज हम ग्लोबलाइजेशन – ग्लोबलाइजेशन पिछले कई दशकों से सुन रहे हैं। हो सकता है भारत कभी दूर से इन चीजों को देखता था। लेकिन आज स्थिति कुछ अलग है। आज भारत का positioning बदल रहा है और ऐसे में हम देश में जो भी करें उसको वैश्विक संदर्भ में करना अब हमारे लिए समय की मांग है। भारत दुनिया में शीर्ष पर कैसे पहुंचे, अगर दुनिया की गतिविधियों को नहीं समझेंगे, नहीं जानेंगे तो हमें कहां जाना है और हमें शीर्ष स्थान पर जाना है तो हमारी राह कोन सी होगी, हमारे क्षेत्र कोन से होंगे ये हमें identify करके और उसका तुलदात्मक अध्ययन करते हुए हमे आगे बढ़ना ही पड़ेगा। हमारी जो योजनाएं है, हमारे गवर्नेंस के जो मॉडल हैं वो हमें इसी संकल्प के साथ विकसित करने हैं। हमें कोशिश ये भी करनी है कि उनमें नवीनता आती रहे, उनमें आधुनिकता आती रहे। हम पिछली शताब्दी की सौच, पिछली शताब्दी के नीति नियमों से अगली शताब्दी की मजबूती का संकल्प नहीं कर सकते हैं और इसलिए हमारी व्यवस्थाओं में, हमारे नियमों में, हमारी परंपराओं में पहले शायद बदलाव लाने में 30 साल 40 साल चले जाते होंगे तो चलता होगा बदलते हुए विश्व और तेज गति से बदलते हुए विश्व में हम पलक–पलक के हिसाब से चलना पड़ेगा ऐसा मेरा मत है। अगर मैं आज तीसरे लक्ष्य की बात करूं जो एक प्रकार से में दोहरा रहा हूं क्योंकि इस बात को मैं लगातार कह रहा हूं। सिविल सर्विस का सबसे बडा काम ये कभी भी हमारा लक्ष्य ओझल नहीं होना चाहिए। व्यवस्था में हम कहीं पर भी हों पद पर हम कहीं पर हों लेकिन हम जिस व्यव्सथा से निकले हैं उस व्यवस्था मे हमारी वो प्राइम रिस्पोंसबलिटी है और वो है देश की एकता, देश की अखंडता। उसमें हम कोई compromise नहीं कर सकते हैं। स्थानीय स्तर पर भी हम जब भी कोई निर्णय करें। वो निर्णय कितना ही लोक लुभावना हो। वाह वाही बटोरने वाला हो, कितना ही आकर्षक लगता हो। लेकिन एक बार उस तराजु से भी उसको तोल दीजिए। कि मेरा ये छोटे से गांव में कर रहां हूं जो निर्णय है कहीं वो मेरी देश की एकता अखंडता के लिए रुकावट बनने वाला तो, मैं कोई बीज तो नहीं बो रहा हूं। आज तो अच्छा लगता हो। प्रिय लगता हो लेकिन श्रेयस करना हो और महात्मा गांधी हमेशा श्रेय और प्रेय की बात लगातार करते थे। हम उस बात की ओर आग्रही बनें। हम नकारात्मकता को छोड़कर के, हम ये भी देखें हमारा कोई भी फैसला देश की एकता को मजबूत करने वाले स्प्रिट से जुड़ा होना चाहिए। सिर्फ वो तोड़ता नहीं है इतना enough नहीं है। वो मजबूती देता है कि नहीं देता है और विविधता भरे भारत के अंदर हमें लगातार एकता के मंत्र का साल्यूशन करते ही रहना पड़ेगा और ये पीढ़ी दर पीढ़ी करते ही रहना पड़ेगा और उसकीचिंता हमें निकाली पड़ेगी और इसलिए मैं पहले भी कह चुका हूंए आज फिर कहना चाहता हूंए भविष्य में भी कहता रहुंगा। हमारे हर का में कसौटी एक होनी चाहिए इंडिया फर्स्ट। नेशन फर्स्ट, मेरा राष्ट्र सर्वोपरि। हमें जहां पहुंचना है। लोकतंत्र में शासन व्यव्स्थाएं भिन्न भिन्न राजनीतिक विचारधाराओं से वैदित हो सकती हैं। और वो भी लोकतंत्र में आवश्यक भी है। लेकिन प्रशासन की जो व्यव्स्थाएं हैं उसके केंद्र में देश की एकता और अखंडता और निरंतर भारत की एकता को मजबूत करने के मंत्र को हमने आगे बढ़ाना चाहिए।
साथियों,
अब जैसे हम डिस्ट्रिक्ट लेवल पर काम करते हैं, राज्य लेवल पर काम करते हैं या भारत सरकार में काम करते हों। क्या इसका कोई circular निकलेगा क्या? कि national education policy में से क्या क्या मुझे मेरे डिस्ट्रिक्ट के लिए उठाना है। उसमें से कौन सी चीजें लागू करनी है। इस Olympic के बाद देश के अंदर खेलकुद के प्रति जो जागरूकता आई है। उसको मेरे डिस्ट्रिक्ट लेवल पर एक institutionalize करके मेरे डिस्ट्रिक्ट से भी खिलाड़ी तैयार हो ये नेतृत्व कोन देगा? क्या सिर्फ खेलकूद विभाग देगा कि पूरी टीम की जिम्मेवारी होगी? अब अगर में डिजिटल इंडिया की बात करता हूं। तो क्या मेरे डिस्ट्रिक्ट में डिजिटल इंडिया के लिए में कुछ टीम बनकर के सोच रहा हूं यहां। आज मार्गदर्शन करने के लिए कुछ करना पड़े ऐसी जरूरत है ही नहीं। अब जैसे आज यहां दो कॉफी टैबल बुक का लॉन्चिंग हुआ लेकिन इस बात को न भूलें। ये कॉफी टेबल बुक हार्ड कॉपी नहीं है। ई-कॉपी है, क्या मैं भी मेरे जिले में ये हार्ड कॉपी के चक्कर से बाहर निकलुंगा क्या? वरना मैं भी बड़े–बड़े थप्पे बना दूंगा और बाद में कोई लेने वाला नहीं निकलता है। हम बनाए, अगर आज हमे देखने को मिला है कि यहां ई-कॉफी टेबल बुक बना है तो मतलब हम भी आदत डालें कि हम भी जरूरत पड़ेगी, हम भी ई-कॉफी टेबल बुक बनाएंगे। यानि ये चीजें, चीजों को percolate करने की हमारी जिम्मेदारी बनती है उसको अलग से कहना न पड़े। मेरा कहने का तात्पर्य यही है कि आज डिस्ट्रिक्ट को गाइड करने के लिए किसी व्यवस्था की जरूरत पड़े, ऐसी जरूरत नहीं है, सारी चीजें available हैं। डिस्ट्रिक्ट में किसी चीज में पूरा जिला अगर उठकर के खड़ा हो जाता है, achieve कर लेता है तो बाकी चीजों पर positive impact अपने आप आना शुरू कर जाता है।
साथियों,
भारत की महान संस्कृति की ये विशेषता है। कि हमारा देश और मैं ये बात बड़ी जिम्मेदारी के साथ कह रहा हूं। हमारा देश राज्य व्यव्सथाओं से नहीं बना है। हमारा देश राज सिंहासनों की बपौती नहीं रहा है। नहीं राज सिंहासनों से ये देश बना है। ये देश सदियों से, हजारों वर्ष के लंबे कालखंड से उसकी जो परंपरा रही है। जन सामान्य के सामर्थ्य को लेकर के चलने की परंपरा रही है। आज जो भी हमने प्राप्त किया है। वो जनभागीदारी की तपस्या का परिणाम है। जन शक्ति की तपस्या का परिणाम है और तब जाकर के देश नई ऊंचाइयों को प्राप्त कर सकता है। पीढ़ी दर पीढ़ी के योगदान से, समय की जो भी आवश्यकताएं थीं उनको पूरा करते हुए, उन परिवर्तनों को स्वीकार करते हुए जो कालबाह्य है उसको छोड़ते हुए, हम वो समाज है हम जीवंत समाज हैं जिसने कालबाह्य परंपरा को खुद ने तोड़–फोड़ उठाकर के फैंक दिया है। हम आंखे बंद करके उसको पकड़कर के जीने वाले लोग नहीं हैं। समयानुकूल परिवर्तन करने वाले लोग हैं। दुनिया में, मैं एक दिन बहुत पहले की बात है। अमेरिका के स्टेट डिपार्टमेंट से मेरी बातें हो रही थी। तब तो मैं राजनीति में मेरी कोई पहचान भी नहीं थी। मैं कोने में छोटा सा कार्यकर्ता था। किसी कारण से मेरा कुछ विषय संबंध रहता था। तो वहां मेरे से चर्चा चली। मेने कहा दुनिया के अंदर कोई भी समाज आस्तिक हो, नास्तिक हो, इस धर्म को मानता हो, उस धर्म को मानता हो, लेकिन मृत्यु के बाद की उसकी जो मान्यता है। उसके विषय में वो ज्यादा बदलाव करने का साहस नहीं करता है। वो वैज्ञानिक है के नहीं है, उपयुक्त है कि नहीं है। समय रहते उसे छोड़ना चाहिए नही चाहिए। उसमें वो साहस नहीं करता है। वो मृत्यु के बाद की जो सोच बनी हुई है, परंपरा बनी हुई है उससे जकड़ के रखता है। मैंने कहा हिंदू एक ऐसा समाज है भारत का कि जो कभी मृत्यु के बाद गंगा के तट पर चंदन की लकड़ी में अगर जलता था शरीर तो उसको लगता था कि मेरा अंतिम कार्य पूर्णता से हुआ। वही व्यक्ति घूमता-घूमता-घूमता इलेक्ट्रिक श्मशान भूमि तक चला गया, उसको कोई संकोच नहीं आया, इस समाज की परिवर्तनशीलता की एक बहुत बड़ी ताकत का इससे बड़ा कोई सबूत नहीं हो सकता। विश्व का कितना ही आधुनिक समाज हो, मृत्यु के बाद उसकी जो धारणाएं हैं, उसको बदलने का सामर्थ्य नहीं होता है। हम उस समाज के लोग हैं, इस धरती की ताकत हैं कि हम मृत्यु की बाद की व्यवस्थाओं में भी अगर आधुनिकता की जरूरत पड़ी तो उसको स्वीकार करने के लिए तैयार होते हैं और इसलिए मैं कहता हूं, ये देश नित्य नूतन, नित्य परिवर्तनशील नवीन को स्वीकारने के सामर्थ्य वाली एक समाज व्यवस्था का परिणाम है कि आज उस महान परंपरा को गति देना हमारे जिम्मे हैं। क्या हम उसे गति देने का काम कर रहे हैं क्या? फाइल को ही गति देने से जिंदगी बदलती नहीं है साथियों, हमने उस एक सामाजिक व्यवस्था के तहत शासन व्यवस्था का एक सामर्थ्य होता है कि मुझे पूरे समाज जीवन का नेतृत्व देना है, ये हमारा दायित्व बन जाता है और वो सिर्फ पॉलिटिकल लीडर का काम नहीं होता है। हर क्षेत्र में बैठे हुए सिविल सर्विस के मेरे साथियों को लीडरशिप देनी होगी। और समाज में परिवर्तन के लिए अगुवाई करने का काम के लिए अपने आपको सज्य करना होगा और तब जाकर के हम परिवर्तन ला सकते हैं दोस्तों। और परिवर्तन लाने का सामर्थ्य आज देश में है और सिर्फ हम ही विश्वास लेकर के जी रहे हैं ऐसा नहीं है, दुनिया बहुत बड़ी आशा के साथ हमारी तरफ देख रही है। तब हमारा कर्तव्य बनता है कि उस कर्तव्य की पूर्ति के लिए हम अपने आप को सज्य करें। अब जैसे हम नियमों और कानूनों के बंधन में ऐसे जकड़ जाते हैं, कहीं ऐसा कर करके जो सामने जो एक नया वर्ग तैयार हुआ है, जो युवा पीढ़ी तैयार हो रही है। क्या हम उसके साहस को, उसके सामर्थ्य को हमारे ये नियमों के जंजाल उसे जकड़ तो नहीं रही है ना? उसके सामर्थ्य को प्रभावित तो नहीं कर रही है ना? अगर ये कर रही है तो मैं शायद समय के साथ चलने का सामर्थ्य खो चुका हूं। मैं उज्जवल भविष्य के लिए, भारत के उज्जवल भविष्य के लिए अपने आपके कदम सही दिशा में सही सामर्थ्य के साथ चला सकूं, वो शायद में खो चुका हूं। अगर मैं इससे बाहर निकलता हूं तो मैं स्थितियों को बदल सकता हूं। और हमारे देश ने आज भी देखा होगा। अब ये आईटी सेक्टर, दुनिया में भारत की जो छवि बनाने में अगर किसी ने शुरुआती रोल किया है तो हमारे आईटी सेक्टर के 20, 22, 25 साल के नौजवानों ने किया है। लेकिन अगर मान लीजिए हम ही लोगों ने उसमें अड़ंगे डाल दिये होते, कानून नियमों में उसे जकड़ दिया होता तो न मेरा ये आईटी सेक्टर इतना फला-फूला होता, न ही दुनिया के अंदर उसका डंका बजा होता।
दोस्तों,
हम न थे तो वो आगे भी बढ़ पाए, तो कभी-कभी हमें भी तो सोचना चाहिए कि दूर रह कर के, ताली बजाकर के प्रोत्साहित करके भी दुनिया को बदला जा सकता है। आज हम गर्व कर सकते हैं स्टार्ट अप्स के विषय में, 2022 अभी तो पहला क्वार्टर अभी-अभी पूरा हुआ है, 2022 के पहले क्वार्टर में तीन महीने के छोटे कालखंड के अंदर मेरे देश के नौजवानों ने स्टार्ट अप की दुनिया में 14 यूनिकॉर्न की जगह प्राप्त कर ली, मित्रों ये बहुत बड़ा अचीवमेंट है। अगर 14 यूनिकॉर्न सिर्फ तीन महीने की भीतर-भीतर मेरे देश का नौजवान उस ऊंचाई को प्राप्त कर सकता है। हमारी क्या भूमिका है? कभी-कभी तो हमें जानकारियां भी नहीं होती हैं कि मेरे डिस्ट्रिक्ट का नौजवान था और टियर-2 सिटी के कोने में बैठा हुआ काम कर रहा था और अखबार में आया तो पता चला कि अरे वो तो यहां पहुंच गया है। इसका मतलब ये हुआ कि शासन व्यवस्था के बाहर भी समाज के सामर्थ्य की ताकत बहुत बड़ी होती है। क्या मैं उसके लिए पोषक हूं कि नहीं हूं? मैं उसको प्रोत्साहित करता हूं कि नहीं करता हूं? मैं उसे recognize करता हूं कि नहीं करता हूं। कहीं ऐसा तो नहीं कि भई तूने कर लिया जो कर लिया लेकिन पहले क्यों नहीं मिले थे? सरकार के पास क्यों नहीं आए थे? अरे नहीं आया वही तो है आपका टाइम खराब नहीं किया लेकिन आपको बहुत कुछ दे रहा है, आप उसका गौरव गान कीजिए।
साथियों,
मैंने दो चीजों का उल्लेख किया है, लेकिन ऐसी बहुत सी चीजें हैं, even कृषि क्षेत्र में, मैं देख रहा हूं हमारे देश के किसान आधुनिकताओं की तरफ जा रहे हैं। शायद उनकी संख्या कम होगी। मेरी बारीक दृष्टि में, मेरी नजर में वो कहीं स्थिर हुआ है क्या?
अगर साथियों,
हम अगर इन चीजों को करते हैं तो मैं समझता हूं कि बहुत बड़ा बदलाव आएगा। एक और बात मैं कहना चाहता हूं, कभी-कभी मैंने देखा है कि सिर्फ खेलना ज्यादातर लोगों के स्वभाव का हिस्सा बन जाता है। अरे छोड़ो यार, चलो भाई हमें कहां कितने दिन रहना है, एक डिस्ट्रिक्ट में तो दो साल तीन साल बहुत हो गए, चले जाएंगे आगे। हुआ क्या, मैं किसी को दोष नहीं देता हूं लेकिन जब एक assured व्यवस्था मिल जाती है, जीवन की security पक्की हो जाती है। तो कभी-कभी स्पर्धा का भाव नहीं रहता है। लगता है अब तो यार सब कुछ है चलो, नए संकट कहां मोल लें, जिंदगी तो चली जानी वाली है, बच्चे बड़े हो जाएंगे, कहीं न कहीं मौका तो मिलना ही है, हमें क्या करना है? और उसमें से खुद के प्रति भी उदासीन हो जाते हैं। व्यवस्था छोड़ो, खुद के लिए भी उदासीन हो जाते हैं। ये जिंदगी जीने का तरीका नहीं है दोस्तों, स्वयं के प्रति कभी भी उदासीन नहीं होना चाहिए। जी भर के जीने का आनंद लेना चाहिए और कुछ कर कर के गुजरने का हर पल का हिसाब लेते रहना चाहिए। तब जाकर के जिंदगी जीने का मजा आता है। बीते हुए पल में मैंने क्या पाया? बीते हुए पल में मैंने क्या दिया? इस लेखा जोखा करने का अगर स्वभाव नहीं है तो जिंदगी धीरे-धीरे खुद को ही खुद से उदास कर देती है और फिर जीने का वो जज्बा ही नहीं रहता है दोस्तों। मैं तो कभी कभी कहता हूं कि सितार वादक और एक टाईपिस्ट दोनों का फर्क देखा है क्या? एक कम्प्यूटर ऑपरेटर उंगलियों को खेल करता है लेकिन 45-50 की उम्र पर पहुंचते हुए कभी मिलोगे तो बड़ी मुश्किल से ऊपर देखता है। एक दो बार में तो वो सुनता भी नहीं है। बड़ा आग्रह से कहो, हां साहब क्या था। आधा मरी हुई जिंदगी जी रहा है वो, जिंदगी बोझ बन गई है, करता तो उंगली का ही काम है। टाइपराइटर पर उंगलियां ही घुमाता है और दूसरी तरफ एक सितार वादक वो भी तो उंगली का खेल करता है लेकिन उसको 80 साल की उम्र में मिलिए चेहरे पर चेतना नजर आती है। जिंदगी भरी हुई नजर आती है, सपनों से जीने वाला इंसान नजर आता है दोस्तों, उंगली के ये खेल दोनों ने गुजारें हैं, लेकिन एक चलते-चलते मरता चला जाता है, दूसरा चलते-चलते जीता चला जाता है। क्या ये बदलाव जिंदगी को भीतर से जीने का संकल्प हमारा होता है क्या, तब जाकर के जिंदगी बदली जाती है दोस्तों और इसलिए मैं कहता हूं साथियों कि मेरी स्ट्रीम में देश के हर कोने में लाखों मेरे साथी हैं, उनके जीवन में चेतना होनी चाहिए, सामर्थ्य होना चाहिए, कुछ कर गुजरने का संकल्प होना चाहिए तभी तो जिंदगी जीने का आनंद आता है दोस्तों। कभी लोग मुझे पूछते है कि साहब थकते नहीं हो? शायद यही कारण है कि जो मुझे थकने नहीं देता है। मैं पल-पल को जीना चाहता हूं। पल-पल को जीकर के औरों के जीने के लिए जीना चाहता हूं।
साथियों,
इसका परिणाम क्या आया है? परिणाम ये आया है कि जो चौखट बनी हुई है, हम जहां भी जाते हैं अपने आपको उसमें ढाल लेते हैं। और उसमें तो आपकी मास्टरी है अपने आप को ढाल देने में। किसी को ये अच्छा लगता होगा ये लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि शायद ये जिंदगी नहीं है दोस्तों, जहां जरूरत है वहां तो ढाल दें, जहां जरूरत है वहां ढाल बन जाएं लेकिन जरूरत है वहां ढाल बनकर के उस बदलाव के लिए भी कदम उठाएं, ये भी जरूरत हेाता है। क्या हमने सहज रूप से गवर्नेंस में रिफॉर्म, ये हमारा सहज स्वभाव बना है क्या? छोटी-छोटी चीजों के लिए कमीशन बनाने पड़े। expenditure कम करो, commission बिठाओ। governance में बदलाव करो, commission बिठाओ। 6 महीने के, 12 महीने के बाद रिपोर्ट आए, फिर रिपोर्ट देखने के लिए एक और कमेटी बनाओ। उस कमेटी की implementation के लिए और एक कमीशन बनाओ। अब ये जो हमने किया है उसका मूल स्वभाव है कि हमने governance में reform समयानुकूल बदलाव बहुत जरूरी होता है जी। किसी समय युद्ध होते थे तो हाथी होते थे, हाथी वालों ने हाथी छोड़कर के घोड़े पकड़े और आज न हाथी चलता है न घोड़ा चलता है कुछ और जरूरत पड़ती है। ये रिफॉर्म सहज होता है लेकिन युद्ध का दबाव हमें रिफॉर्म करने के लिए मजबूर करता है। हमें देश की आशा-आकांक्षाएं हमें मजबूर कर रही हैं कि नहीं कर रही हैं, जब तक देश की आशा-आकांक्षाओं को हम समझ नहीं पाते हैं, तब हम खुद हो कर के governance में reform नहीं कर सकते हैं। Governance में reform एक नित्य प्रक्रिया होनी चाहिए, सहज प्रक्रिया होनी चाहिए और प्रयोगशील व्यवस्था होनी चाहिए। अगर प्रयोग सफल नहीं हुआ तो छोड़ के चले जाने का साहस होना चाहिए। मेरे ही द्वारा की हुई गलती को स्वीकार करते हुए मुझे नया स्वीकार करने का सामर्थ्य होना चाहिए। तब जाकर के बदलाव आता है जी। अब आप देखिए सैकड़ों कानून ऐसे थे, मैं मानता हूं देश के नागरिकों के लिए बोझ बन गए थे। मैं जब 2013 में पहली बार प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में मेरी पार्टी ने घोषित किया और मैं भाषण दे रहा था तो दिल्ली में एक business community ने मुझे बुलाया था, चुनाव के 4-6 महीने अभी तो बाकी थे 2014 के। तो उन्होंने मुझे पूछा क्या करोगे? मैंने कहा मैं रोज एक कानून खत्म करूंगा, नए कानून नहीं बनाऊँगा। तो उनको आश्चर्य हुआ और मैंने पहले 5 साल में 1500 कानून खत्म किये थे। मुझे बताइये जरा साथियों, ऐसे कानूनों को लेकर के हम क्यों जिंदा होते? और मुझे आज भी… आज भी मेरा मत ऐसे बहुत से कानून होंगे, बेकारण पड़े हुए हैं, अरे आप तो कोई initiative लेकर के खत्म करो उन्हें भाई। देश को इस जंजाल से बाहर निकालो। उसी प्रकार से कंप्लायंस, हम न जाने नागरिकों से क्या-क्या मांगते रहते हैं जी। मुझे कैबिनेट सेक्रेटरी ने कहा कि बाकी दुनिया के देश के काम होंगे, आप इसका जिम्मा लीजिए, ये कंप्लायंस से देश को मुक्त कीजिए, नागरिकों को मुक्त कीजिए। आजादी के 75 साल हुए, नागरिकों को इस जंजाल में क्यों फंसा के रखे हुए हो। और एक दफ्तर में 6 लोग बैठे होंगे, हर टेबल वाले के पास जानकारी होगी लेकिन फिर भी वो अलग से मांगेंगे, बाजू वाले से नहीं लेगा। इतनी चीजें हम नागरिकों से बार-बार मांगते आ रहे हैं। आज टेक्नॉलोजी का युग है जी, हम ऐसी व्यवस्थाएं क्यों न विकसित करें, हम कंप्लायंस से, बर्डन से देश को मुक्त क्यों न करें? मैं तो हैरान हूं। अभी हमारे कैबिनेट सेक्रेटरी ने एक बीड़ा उठाया है, लगे हैं कि भई हर चीज में जेल लेते हैं भई नागरिकों को, मैंने एक ऐसा कानून देखा कि अगर कारखाने में जो toilets हैं उसको अगर हर 6 महीने चूना नहीं लगाया है तो आप जेल जाएंगे, अब बताइए। हम कैसा देश को ले जाना चाहते हैं? अब ये सारी चीजों से हमें मुक्ति चाहिए। अब ये सहज प्रक्रिया होनी चाहिए, इसके लिए कोई सर्कुलर निकालने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। आप को ध्यान में आता है कि राज्य सरकार के बस का रोग है, राज्य सरकार को बताइये, भारत सरकार की जिम्मेदारी है, उनको बताइये। संकोच मत कीजिए भाईयों। कहना है जितना हम नागरिक को इस बोझ से मुक्त करेंगे, उतना ही मेरा नागरिक खिलेगा। बहुत बड़ी ताकत के साथ खिलेगा। हमें छोटी सी समझ है, बड़े पेड़ के नीचे कितना ही अच्छा फूल का पौधा लगाना चाहते हैं, लेकिन बड़े की छाया का दबाव इतना होता है कि वो फूल नहीं पाता है। वही पौधा अगर खुले आसमान के नीचे छोड़ दिया जाए, वो भी ताकत के साथ खड़ा होना चाहता है, उसको इस बोझ से बाहर निकाल दीजिए।
साथियों,
आमतौर पर देखा गया है कि जैसा चल रहा है, उसी व्यवस्था में मैंने कहा वैसे ढालते रहो, जैसे-तैसे गुज़ारा करते हैं, समय काटने की कोशिश करते हैं। पिछले 7 दशकों में अगर हम इसकी समीक्षा करें तो एक बात आपको ज़रूर दिखेगी। जब भी कोई संकट आया, कोई प्राकृतिक आपदा आई कोई विशिष्ट प्रकार का दबाव पैदा हुआ, तो फिर हमने बदला, कोरोना आया तो दुनिया भर के बदलाव हमने किये अपने हित में। लेकिन क्या ये स्वस्थ स्थिति है क्या? बड़ा प्रेशर आ जाए तब जा कर के हम बदले, ये कोई तरीका है क्या? हम अपने आप को सज्य क्यों न करें दोस्तों और इसलिये हमने संकट के समय में रास्ता खोजने… अब एक समय था हम अभाव में गुजारा करते थे और इसलिये हमारे सारे जो नियम विकसित हुए वो अभाव के बीच कैसे जीना, वो बने। लेकिन अब अभाव से जब बाहर आए हैं तो कानून भी तो अभाव से बाहर लाइए भैया, विपुलता की ओर क्या सोचना चाहिए उस पर हम सोचें। अगर विपुलता के लिए हम नहीं सोचेंगे, अगर एग्रीकल्चर में आगे बढ़ रहे हैं, अगर फूड प्रोसेसिंग की व्यवस्था पहली कर दी होती तो आज कभी-कभी किसानों पर जो चीजें बोझ बन जाती हैं वो शायद न बनती। और इसलिए मैं कहता हूं कि संकट में से रास्ते खोजने का तो तरीकी सरकार ने सीख लिया है, लेकिन स्थाई भाव से व्यवस्थाओं को विकसित करना, ये हम लोगों का… और हमें visualize करना चाहिए कि हमें ये-ये समस्याएं आती हैं, ये समस्याएं खत्म कैसे हों उसके लिए समाधान क्या निकले इसके लिए काम करना चाहिए। उसी प्रकार से हम चुनौतियों के पीछे मजबूरन भागना पड़े, ये ठीक नहीं है जी। हमें चुनौतियों को भांपना चाहिए, अगर टेक्नोलॉजी ने दुनिया बदली है तो मुझे उस governance में उसके साथ आने वाली चुनौतियों का मुझे पता होना चाहिए। मैं अपने आप को उसके लिए सज्य करूं। और इसलिए मैं चाहूंगा कि Governance reform ये हमारा नित्य कर्म होना चाहिए। लगातार कोशिश होनी चाहिए और मैं तो कहूंगा कि जब भी हम रिटायर हो जाएं तो मन में से एक आवाज निकलनी चाहिए कि मेरे कालखंड में मैंने Governance में इतने इतने reform किये। और वो व्यवस्थाएं विकसित की जो शायद आने वाले 25-30 साल तक देश को काम आने वाली हैं। अगर ये बदलाव होता है तो तो परिवर्तन होता है।
साथियों,
बीते 8 साल के दौरान देश में अनेक बड़े काम हुए हैं। इनमें से अनेक अभियान ऐसे हैं जिनके मूल में behavioral change है। ये कठिन काम होता है और राजनेता तो इसमें कभी हाथ लगाने की हिम्मत ही नहीं करता है। लेकिन मैं राजनीति से बहुत परे हूं दोस्तों, लोकतंत्र में एक व्यवस्था है, मुझे राज व्यवस्था से गुजरकर के आना पड़ा है वो अलग बात है। मैं मूलत: राजनीति के स्वभाव का नहीं हूं। मैं जन नीति से जुड़ा हुआ इंसान हूं। जन सामान्य की जिंदगी से जुड़ा हुआ इंसान हूं।
साथियों,
ये जो behavioral change की मेरी जो कोशिश रही है। समाज की मूलभूत चीजों में परिवर्तन लाने की जो प्रयास हुआ है। सामान्य से सामान्य मानवीय की जिंदगी में बदलाव लाने की जो मेरी आशा-आकांक्षा उसी का एक हिस्सा है और जब मैं समाज की बात करता हूं तो शासन में मैं समझता हूं कि बैठे लोग अलग नहीं हैं इससे, वो कोई दूसरे ग्रह से नहीं आए हैं, वो भी उसी का हिस्सा है। क्या हम ये जो बदलाव की बात करते हैं, मैं देखता हूं कभी अफसर मुझे शादी का कार्ड देने आते हैं तो मेरा तो स्वभाव है मैं छोड़ नहीं पाता हूं और मैं जरा, मेरे पास आते हैं तो बड़ा महंगा कार्ड नहीं लेके आते हैं, बहुत ही सस्ता कार्ड लाते हैं। लेकिन उस पर प्लास्टिक का कवर होता है transparent, तो मैं सहज पूछता हूं कि ये single use plastic अभी भी use करते हैं आप? तो बेचारे शर्मिंदगी महसूस करते हैं। मेरा कहना ये है जो हम देश के पास अपेक्षा करते हैं कि भई single use plastic न करें, क्या मेरे दफ्तर में मैं जहां हूं, मैं काम करता हूं, क्या मैं मेरे जीवन में बदलाव ला रहा हूं, मेरी व्यवस्था में बदलाव ला रहा हूं। मैं चीजों को छोटी-छोटी चीजों को इसलिए हाथ लगाता हूं कि हम बड़ी चीजों में इतने खोए हुए हैं कि छोटी चीजों से दूर चले जाते हैं। और जब छोटी चीजों से दूर चले जाते हैं तब छोटे लोगों से भी दीवारें बन जाती हैं दोस्तों, मुझे इन दीवारों को तोड़ना है। अब स्वच्छता का अभियान, मुझे कोशिश करनी पड़ती है, हर 15 दिन में डिपार्टमेंट में क्या चल रहा है, देखों स्वच्छता का कुछ हो रहा है। क्या इतने दो साल, तीन साल, पांच साल हो गए दोस्तों, क्या अब वो हमारे डिपार्टमेंट में वो स्वभाव बनना चाहिए कि नहीं बनना चाहिए? अगर वो स्वभाव नहीं बना है तो देश के सामान्य नागरिक से उसका वो स्वभाव बन जाएगा, ये अपेक्षा करना अगर ज्यादा ही होगा और इसलिए मैं कहता हूं साथियों हमने इसकी व्यवस्था को स्वीकार किया। अब हम डिजिटल इंडिया की बात करते हैं, एक Fintechकी चर्चा करते हैं, भारत ने Fintech में जो गति लाई है, डिजिटल पेमेंट की दुनिया में जो कदम उठाया, जब मैं काशी के किसी नौजवान को इनाम मिलता है हमारे अफसर को तो ताली बजाने का मन तो कर जाता है क्यों, क्योंकि वो रेड़ी पटरी वाला कोई डिजिटल पेमेंट का काम कर रहा है और हम वो तस्वीर पर देखकर के अच्छा लगता है। लेकिन मेरा बाबू, वो डिजिटल पेमेंट नहीं करता है, अगर मेरी व्यवस्था में बैठा हुआ इंसान वो काम नहीं करता है मतलब मैं इसे जन आंदोलन बनाने में रुकावट बना हूं। सिविल सर्विस डे में ऐसी बाते करनी चाहिए कि नहीं करनी चाहिए विवाद हो सकता है, आप तो दो दिन बैठने वाले हो तो मेरी भी बाल की खाल उतार लोगे मुझे पता है। लेकिन फिर भी साथियों मैं कहता हूं जो चीजें अच्छी लगती हैं, जो हम समाज से अपेक्षा करते हैं उसका कहीं न कहीं हमें अपने से से भी शुरू करना चाहिए, हमें ये कोशिश करनी चाहिए। अगर हम इन चीजों को कोशिश करेंगे तो हम बहुत बड़ा परिवर्तन ला सकते हैं, हम कोशिश करें। अब GeM पोर्टल, क्या बार-बार सर्कुलर निकालना पड़ेगा क्या कि हम अपने डिपार्टमेंट के GeM पोर्टल पर 100% कैसे ले जाएं? एक सशक्त माध्यम बना है दोस्तों, हमारा यूपीआई globally appreciate हो रहा है। क्या मेरे मोबाइल फोन पर यूपीआई की व्यवस्था है क्या? मैं यूपीआई की आदत डाल चुका हूं क्या? मेरे परिवार के सदस्यों ने डाला हुआ है क्या? बहुत बड़ा सामर्थ्य हमारे हाथ में है लेकिन अगर मैं, मेरी यूपीआई को स्वीकार नहीं करता हूं और मैं कहूंगा कि Google तो बाहर का है, दोस्तों अगर हमारे दिल में अगर यूपीआई के अंदर वो भाव होता है तो हमारे यूपीआई भी Google से आगे निकल सकता है, इतनी ताकत रख सकता है। Fintechकी दुनिया में नाम रख सकता है। Technology के लिए full proof सिद्ध हो चुका है, world bank उसकी तारीफ कर रहा है। हमारी अपनी व्यवस्था में वो हिस्सा क्यों नहीं बनता है। पीछे पड़ते हैं तो करते हैं मैंने देखा है। मैंने देखा है कि हमारे जितने uniform forces हैं, उन्होंने अपनी कैंटीन के अंदर कंपलसरी कर दिया है। वो डिजिटल पेमेंट ही लेते हैं। लेकिन आज भी हमारे secretariat के अंदर कैंटीन होते हैं, वहां नहीं है व्यवस्था। क्या ये बदलाव हम नहीं ला सकते हैं क्या? बातें छोटी लगती होंगी लेकिन अगर हम कोशिश करें दोस्तों, तो हम बहुत बड़ी बातों को कर सकते हैं और हमें आखिरी व्यक्ति तक उचित लाभ पहुंचाने के लिए हमें लगातार एक perfect seamless mechanism खड़े करते रहना चाहिए और जितना ज्यादा हम इसमैकेनिज्मको खड़ा करेंगें मैं समझता हूं कि देश का आज आखिरी व्यक्ति का empowerment का हमारा जो मिशन है उस मिशन को बहुत अच्छे ढंग से हम आज पूरा कर सकते हैं।
साथियों,
मैंने काफी समय ले लिया है आपका, कई विषयों पर मैंने आपसे बात करी हैं। लेकिन मैं चाहूंगा कि हम इन चीजों को आगे बढ़ाएं। इस सिविल सर्विस डे हमारे अंदर एक नयी ऊर्जा भरने का अवसर बनना चाहिए। नए संकल्प लेने का अवसर बनना चाहिए। नए उत्साह और उमंग से जो नए लोग हमारे बीच आएं हैं उनका hand holding करें। उनको भी इस व्यवस्था का हिस्सा बनने के लिए उमंग से भर दें। हम खुद जिंदा दिल जिंदगी जीते हुए अपने साथियों को आगे बढ़ाएं। इसी एक अपेक्षा के साथ मेरी आप सबको अनेक-अनेक शुभकामनाएं हैं। बहुत-बहुत धन्यवाद!
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आज सावन का पहला सोमवार है। इस पवित्र दिवस पर एक महत्वपूर्ण सत्र प्रारंभ हो रहा है, और सावन के इस पहले सोमवार की मैं देशवासियों को बहुत-बहुत शुभकामनाएं देता हूं।